Monday, January 13, 2025
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अज़ीम रहनुमाओं की पहली फेहरिस्त में शामिल हैं मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, जानिए उनके जीवन से जुड़ी खास बातें

नई दिल्ली (मो. दानिश) भारत की जंग -ए -आज़ादी के अज़ीम रहनुमाओं की पहली फेहरिस्त में शामिल मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की बेमिसाल शख्सियत को आजादी के 75 वें साल (अमृत वर्ष) में कई मुनासिब और वाजिब  वजहों से याद किया जाना  लाज़िमी है l

धार्मिक कट्टरता और दक्षिणपंथी उभारों के इस बेहद मुश्किल दौर में जब धर्म और राष्ट्र को लेकर न केवल एक खास किस्म की विकृत एवं एकहरी विचारधारा थोपने की कोशिशे तेज होती गई हैं बल्कि प्रकारांतर से धार्मिक अल्पसंख्यकों के सामाजिक और सांस्कृतिक उत्पीड़न के अभियान को भी बढ़ाया गया है तब धर्मनिरपेक्ष एवं समन्वित संस्कृति के सशक्त पैरोकार मौलाना आजाद के योगदानों का महत्त्व और भी बढ़ जाता है ।

11 नवंबर,1888 को मक्का की पवित्र धरती पर जन्म लेने वाले मुहीउद्दीन अहमद 2 साल की उम्र में हिन्दुस्तान (कलकत्ता) आए और अपनी जेहनी काबिलियत के दम पर जमाने भर में  मौलाना अबुल कलाम आजाद के नाम से जाने गए। उन्होंने तमाम उम्र  भारत के मुस्तकबिल को संवारने में लगा दी ।

मौलाना आजाद की पसंदीदा पोशाक शेरवानी और ऊंची टोपी को देखकर कुछ लोगों को उनके पुरातनपंथी या रूढ़िवादी होने का भ्रम हो सकता है लेकिन जब आप मौलाना आजाद की जिंदगी और कार्रवाइयों के तमाम पड़ावों पर सिलसिलेवार नजर डालेंगे तब आप उनकी प्रगतिशीलता, उदारता और आधुनिकता का सही सही आंकलन कर पाएंगे। मौलाना आज़ाद अक्सर कहा करते थे -मनुष्य के मानसिक विकास के मार्ग में अंधविश्वास बड़ी रुकावट है l

अंधविश्वास की रूढ़ि को मिटाने के क्रम में ही उन्होंने स्वयं के लिए “आजाद” तखल्लुस (उपनाम) चुना था। इस बात की तस्दीक करते हुए उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘इंडिया विंस फ्रीडम’ में लिखा है- “ मैं सभी पारंपरिक रास्तों से मुक्ति का आकांक्षी था और एक नए रास्ते की तलाश में था तभी मैंने ‘आजाद’ तखल्लुस को अपनाने का फैसला किया ।यह इस बात का सूचक था कि मैं किसी पूर्व निश्चित ज्ञानधारा का अंध समर्थक नहीं हूं।उल्लेखनीय है कि इस समय यानी अपनी किशोरावास्था में मौलाना आजाद धर्म, सत्य और दर्शनसे जुड़े विषयों का ज्ञानप्राप्त कर रहे थे तभी इससाहसिकचिंतनकी नींव पड़ी।

समकालीनपरिस्थितियों में मौलाना आजाद कामूल्यांकन उस ऐतिहासिक भाषण के बगैर पूरा नहीं हो सकता  जो उन्होंने कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन (1940 ) में बतौर अध्यक्ष दिया था इस भाषण में उन्होंने अपनी धार्मिक मान्यताओं और राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं से संबंधित मुद्दों पर जिस विद्वता और साफगोई से प्रकाश डाला है वो उनके अध्येता और प्रगतिशील व्यक्तित्व का परिचायक है इस भाषण में उन्होंने अपने तर्कों और विश्लेषणों के माध्यम से व्यक्ति की निजी धार्मिक मान्यताओं के महत्त्व को रेखांकित करते हुए एक सचेतन भारतीय नागरिक की जिम्मेदारियों का बोध भी करायाहै-“मैं मुसलमान हूँ और गर्व के साथ अनुभव करता हूँ कि मुसलमान  हूँ l

इस्लाम की 1300 बरस की शानदार रिवायतें मेरी पैतृक संपत्ति हैं। मुसलमान होने की हैसियत से मैं अपने आप अपने मजहबी और कल्चरल दायरे में अपना एक खास अस्तित्व रखता हूँ और मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता कि इसमें कोई हस्तक्षेप करें किंतु इन तमाम भावनाओं के अलावा मेरे अंदर एक और भावना भी है जिससे मेरी जिंदगी के रियलिटीज यानी हकीकतों ने पैदा किया है इस्लाम की आत्मा मुझे उस से नहीं रोकती बल्कि मेरा मार्ग प्रदर्शन करती है मैं अभिमान के साथ अनुभव करता हूँ कि मैं हिंदुस्तानी हूँ मैं हिंदुस्तान की अब विभिन्न संयुक्त राष्ट्रीयता का (नाकाबिले तकसीम मुत्ताहिदा कौमियत)  का ऐसा महत्वपूर्ण अंश हूँ उसका ऐसा टुकड़ा हूँ जिसके बिना उसका महत्त्व अधूरा रह जाता मैं इसकी बनावट का एक जरूरी हिस्सा हूंl

मैं अपने इस दावे से कभी दस्त बरदार नहीं हो सकता आज हमारी कामयाबियों का दारोमदार तीन चीजों पर हैl  हमारी सफलता इन्हीं पर निर्भर है इतिहाद यानी एकता डिसिप्लिन यानी अनुशासन और महात्मा गाँधी के नेतृत्व यानी उनकी रहनुमाई पर पूरा भरोसाI”

आज के समय में जब देश की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी की राष्ट्रभक्ति को सवालों के घेरे में रख कर नफरती सोच को पोषित किया जा रहा है तब भारतीय मुसलमानों के सबसे अजीम रहनुमा मौलाना आजाद का उपरोक्त वक्तव्य मुसलमानों की वतन परस्ती की शिनाख्त बहुत ही तसल्लीबख्श तरीके से पेश करता है इतना ही नहीं देश की आजादी के बाद बने भारतीय संविधान में जिस धार्मिक आजादी के अधिकार का प्रावधान प्रत्येक नागरिक के लिए किया गया उसकी पूर्वपीठिका भी मौलाना आजाद के इस बयान में मौजूद हैl

मजहबी मोहब्बत और वतनी मोहब्बत के रंगों को इंसानी जिंदगी के साथ इस खूबसूरती से जोड़ने की बात शायदही इससे पहले किसी ने की हो l अपनी भारतीय प्रतिबद्धता को लेकर मौलाना आजाद आजीवन समर्पित भाव से कार्य करते रहे भारतीयता के इसी समर्पण भाव के कारण उन्होंने द्विराष्ट्र के सिद्धांत का सदैव विरोध किया उन्होंने ना केवल मुस्लिम  लीग की पृथकतावादी सोच का विरोध किया बल्कि अपने समाज के लोगों की आलोचनाओं को भी बहुत ही बहादुरी से झेला और कट्टरपंथी विचारधारा के प्रतिरोध में एक उदारवादी सोच और मिल्लत से भरी समझ के मिशन को आगे बढ़ायाl मौलाना आजाद को अपनी हिंदुस्तानी राष्ट्रीयता पर इतना गर्व था वे इसे अविभाज्य मानते थे l

धार्मिक विभाजन के वे न केवल धुर विरोधी थे बल्कि वे मानते थे कि अगर देश का विभाजन धार्मिक आधार पर होगा तो इससे सिर्फ और सिर्फ नुकसान नागरिको और हमारे भविष्य का होगा यह मौलाना आजाद के अथक परिश्रम और अदम्य जिजीविषा का ही प्रतिफल था कि लाखों मुसलमान जिन्होंने धार्मिक आधार पर बने नए देश पाकिस्तान जाने की सारी तैयारियां पूरी कर ली थी आखिरी समय में अपना इरादा बदल दियाl बंटवारे की त्रासदी के  दिनों में मुसलमानों के अंदर घर कर चुके भय और संत्रास की भावना पर चोट करते हुए उन्होंने 23अक्टूबर ,1948 को जामा मस्जिद की प्राचीर से मुसलमानों को संबोधित करते हुए उन्हें उनके पूर्वजों की बहादुराना कर्रवाइयों और वतन के लिए सब कुछ कुर्बान कर देनेवाले योद्धाओं की याद दिलाई और मुस्लिम लीग एवं जिन्ना की साजिशों को भी बेनकाब किया।

यह संबोधन इसलिए अविस्मरणीय है कि एक ऐसे समय में जब अविश्वास और असुरक्षा का वातावरण अपने चरम पर था , इंसान इंसान के खून का प्यासा बन गया था, प्यार और सौहार्द्र जैसे शब्द अपने अर्थ खो चुके थे तब मौलाना आजाद के इस निर्भीक संबोधन ने न केवल एक जनसमूह के मन में विश्वास,सुरक्षा और प्रेम की भावना को  पुख्ता किया बल्कि   उन्हें अपने पुरखों की पुण्यभूमि पर रोकने में भी जबरदस्त कामयाबी हासिल की।इतिहास में ऐसे प्रसंग बहुत कम मिलेंगे जब इतने नाजुक मौकों पर किसी एक शख्सियत ने अपने बूते इतिहास की धारा को  ही बदल दिया हो।

मौलाना आजाद की बुलंद और दानिश्मंदी से भरी तकरीर ने आज़ाद हिंदुस्तान को ऐसी युगांतकारी घटना से पहली बार परिचित कराया साथ ही साथ मौलाना आजाद की ‘स्टेट्समैन’ इमेज भी इससे दुनियाभर में स्थापित हो गई। विभाजन की विभीषिका से आगाह करते हुए मौलाना आजाद ने बहुत ही जज़्बाती तरीके से दो कौमों के नजरिए को मर्ज-ए – मौत के बराबर करार दिया –“ मेरे अजीजो! आप जानते हैं कि कौन-सी जंजीर है जो मुझे यहां ले आई है ।मेरे लिए शाहजहां की इस यादगार मस्जिद में ये इज्तमा नया नहीं ।

मैंने जब तुम्हें खिताब किया था, उस वक्त तुम्हारे चेहरों पर बेचैनी नहीं इत्मीनान था । तुम्हारे दिलों में शक के बजाय भरोसा था।—– सोचो तो सही तुमने कौन-सी राह  अख्तियार की? कहां पहुंचे और अब कहां खड़े हो ?  क्या ये खौफ की जिंदगी नहीं।और क्या तुम्हारे भरोसे में फर्क नहीं आ गया है । ये खौफ तुमने ही पैदा किया है l अभी कुछ ज्यादा वक्त नहीं बीता, जब मैंने तुम्हें कहा था कि दो कौमों का नजरिया मर्ज -ए – मौत का दर्जा रखता है। इसको छोड़ दो l “

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के  सबसे कम उम्र के  और सबसे ज्यादा दिन तक अध्यक्ष रहने का गौरव प्राप्त मौलाना आजाद ने अपने इसी भाषण में मुस्लिम लीग की षड्यंत्रकारी सोच पर चोट करते हुए कहा –“ जिन पर आपने भरोसा किया, वो भरोसा बहुत तेजी से टूट रहा है लेकिन तुमने सुनी की अनसुनी सब बराबर कर दी और ये न सोचा कि वक्त और उसकी रफ्तार तुम्हारे लिए अपना वजूद नहीं बदल सकते l वक्त की रफ्तार थमी नहीं । तुम देख रहे हो । जिन सहारों पर तुम्हें भरोसा था वो तुम्हें लावारिस समझकर तकदीर के हवाले कर गए हैं । वो तकदीर जो तुम्हारी दिमागी मंशा से जुदा है ।“

मौलाना आज़ाद की प्रखर राष्ट्रवादिता और दुर्लभ बुद्धिमता केप्रबलसूत्रों को भी इस भाषणसे पहचाना जा सकता  है –“ आज हिंदुस्तान आजाद है और तुम अपनी आंखों से देख रहे हो वो सामने लालकिले की दीवार पर आजाद हिंदुस्तान का झंडा शान से लहरा रहा है ये वही झंडा है जिसकी उड़ानों से हाकिमा गुरूर के दिल आजाद कहकहे लगाते थेl

यह ठीक है इसी वक्त ने तुम्हारी ख्वाहिशों के मुताबिक अंगड़ाई नहीं ली बल्कि उसने कौम के पैदाइशी हक के  एहतराम में करवट बदली है।……. हिंदुस्तान का बंटवारा बुनियादी तौर पर गलत था मजहबी इखतलाफ को जिस तरह से हवा दी गयी है उसका नतीजा और आसार ये ही थे जो हमने अपनी आँखों से देखें और बदकिस्मती से कई जगह पर आज भी देख रहे हैं l”बतानेकीजरुरतनहींहै कि मौलाना आजाद का यह ओजस्वी भाषण उनके उदार चिंतन को समझने का सबसे सशक्त स्रोत है l

स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री रहे मौलाना आजाद कीआजादख्याल और खोजीमानसिकता ने आगे चलकर उन्हें एक प्रतिष्ठित पत्रकार के रूप में भी स्थापित किया। उनके द्वारा निकाले गए ‘अल हिलाल’ और ‘, अल बलाग’ नामक उर्दू अखबार भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में  मील के पत्थर हैं। इन अखबारों के जरिए मौलाना आजाद ने तत्कालीन वैश्विक और राष्ट्रीय प्रश्नों पर अपने सुचिंतित विचारों से जनता को अवगत कराया और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ एक विशाल जनमत तैयार किया।

उनके लेखों और टिप्पणियों का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि ब्रिटिश हुकूमत ने कानून में संशोधन करके इन अखबारों को जब्त कर लिया और भारी जुर्माना लगाया। इन अखबारों के माध्यम से मौलाना आजाद ने मुस्लिम समाज को भी नई सोच और समझ से परिचित कराया। उन्हें आधुनिक समय के साथ जुड़ने को प्रेरित किया ।उनके सुखद भविष्य की योजनाओं का खाका पेश किया l  सर सय्यद की अंग्रेजपरस्त नीति का विरोध करते हुए उन्होंने सम्पूर्ण मुस्लिम समाज को राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम में एकजुट होने को प्रेरित किया ।

इसी क्रम में उन्होंने असहयोग आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय संस्थान के रूप में जामिया मिल्लिया इस्लामिया की स्थापना को संभव किया। इन्हीं वजहों से मौलाना आजाद की मकबूलियत में बहुत इजाफा हुआ । अपनी आत्मकथा में उन्होंने अल हिलाल की लोकप्रियता का किस्सा सप्रमाण प्रस्तुत किया है –“ अल हिलाल की प्रसार संख्या प्रति सप्ताह 26000 प्रति पहुंच गई थी। उस जमाने(1912-13) में यह एक अविश्वसनीय उपलब्धि थी l”

देश के पहले शिक्षामंत्री के रूप में जिस तरह से उन्होंने नवस्वतंत्र राष्ट्र की भावी आवश्यकताओं को समझते हुए आधारभूत संकल्पनाओं को साकार रूप में परिणत किया , आगे चलकर उन्हीं के बलबूते एक समर्थ भारत का सम्यक स्वरूप प्रस्फुटित हो सका।नवोदित राष्ट्र के विकास में शिक्षा के सर्वोपरि महत्व को स्वीकारते हुए उन्होंने देश के शिक्षित समाज को उसकी जिम्मेदारियों की याद दिलाई –“ मैं अपने देश के सभी शिक्षित पुरुषों और महिलाओं से प्रार्थना करता हूँ कि वे इसे यानी शिक्षा को एक पवित्र राष्ट्रीय सेवा समझे तथा सामने आकर कम से कम दो वर्ष के लिये शिक्षक के रूप में सेवा करे वे इस राष्ट्रीय कार्य के लिए किया गया त्याग माने l”

मौलाना आजाद ने यह सार्वजनिक अपील शिक्षा मंत्री के तौर पर 16 जनवरी,1948 को अखिल भारतीय शिक्षा सम्मेलन के उद्घाटन भाषण में की थी। ध्यातव्य है कि उस समय भारत की साक्षरता दर महज 12प्रतिशत थी इसलिए एक नवोदित राष्ट्र के उन्नत भविष्य के लिए ऐसा वृहद स्वयंसेवी प्रयास अनिवार्य था। इसी भाषण में उन्होंने सभी भारतीय नागरिकों के लिए

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